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३५४-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
कहा जा सकता कि वास्तव में राग-द्वेष जीत लिए गये हैं। जब सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र की आराधना हो तभी समझना चाहिए कि राग-द्वेष पर विजय प्राप्त हो चुकी है । अगर इस रत्नत्रय की भलीभाति आराधना नही होती तो समझना चाहिए कि राग, द्वेष और मिथ्यात्व को लोक-दिखाऊ हो जीता है -वास्तविक रूप से नही ।
जिस काम को करने में कोई कष्ट नही होता, लोग उसे करने के लिए तैयार हो जाते हैं। मगर कष्टकारी कार्य __ करने के लिए लोग तैयार नही होते । जैसे एकेन्द्रिय जीव
की रक्षा करना भी शास्त्रसम्मत है, किन्तु एकेन्द्रिय जीव की रक्षा करने के लिए जितना पुरुषार्थ करना पड़ता है, उसकी अपेक्षा बहुत ज्यादा पुरुषार्थ पचेन्द्रिय जीवो की रक्षा के लिए करना पड़ता है और पचेन्द्रियों में भी पशुओ की अपेक्षा मनुष्य की रक्षा करने में सबसे ज्यादा श्रम करना पड़ता है । जीवत्व की दष्टि से तो एकेन्द्रिय भी जीव है और पचेन्द्रिय भी जीव है, परन्तु पचेन्द्रिय को और उसमें भी मनुष्य की रक्षा करने मे राग-द्वेष को अधिक मात्रा में जीतना पडता है । इसलिए समस्त प्राणियो मे सबसे पहले मनुष्य रक्षा का पात्र है । परन्तु आज तो उलटी गङ्गा वह रही है । आज लोग एकेन्द्रिय जीव की रक्षा करने के लिए तो तैयार हो जाते हैं लेकिन पचेन्द्रिय और मनुष्य की रक्षा करने में उपेक्षा बतलाते हैं । एक बकरे को छुडा कर पीजरापोल में भेज देना सरल है, इस कारण उसकी रक्षा करने के लिए लोग तैयार हो जाते है मगर मनुष्य को रक्षा करने का अवसर आने पर विचार में पड़ जाते हैं । बकरे को पीजरापोल मे भेज कर लोग अपनी जिम्मेवरी से छूट