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एकत्तरवां बोल - ३५६ न होने देना है । संसार में रहकर अनेक प्रकार की आघि, व्याधि, उपाधि, जन्म जरा, मरण आदि की वेदनाओ वाली अवस्थाएँ प्राप्त करना और दुम्सह दु:ख भुगतते रहना ही कर्म का महान् दण्ड है ।
यह कर्म- दण्ड प्रत्येक प्राणी को सहन करना ही पडता है । कर्म के इस पराध का दण्ड समभाव से सहन किये बिना कोई भी प्राणी सिद्ध, बुद्ध मोर मुक्त नही हो सकता । शास्त्रकार तो स्पष्ट शब्दो मे कहते हैं :
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कडाण कम्माण न मोक्ख श्रत्थि |
अर्थात् - किये कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं मिलता ।
कर्मबन्धन के कारण ही जीवात्मा नरकगति, तियंचगति, मनुष्यगति और देवगति- इन चार गतियों में तथा चौबीस दण्डको मे और चौरासी लाख जीवयोनियो मे भ्रमण करता है और शुभाशुभ कर्मानुमार सुख-दुख का कडुवामीठा अनुभव करता है ।
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इन कर्मबन्धनो का मूल कारण तो राग और द्वेष ही है । अगर राग और द्वेष रूप इन दो कर्मबीजो को निर्मूल कर दिया जाये तो जीवात्मा कर्शबन्धनो से मुक्त हो सकता है । शास्त्रकार फिर कहते हैं :
रागो य वोसो वि य कम्मवीयं ।
अर्थात - राग और द्वेष, यह दोनो कर्मों के बीज हैं । राग और द्वेष को दूर करने के लिए शास्त्रकारो ने कर्मवन्धन के कारणो को दूर करना श्रावश्यक बतलाया है । मुख्यरूप से कर्मबन्धन के पांच कारण हैं- (१) मिथ्यात्व,