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एकतरवां बोल
राग-द्वेष-मिथ्यादर्शन-विजय
आत्मा को स्वतन्त्र बनाने के उद्देश्य से ही शास्त्र में सम्यक्त्व के विषय में पराक्रम करने के लिए कहा गया है। सम्यक्त्व मे पुरुषार्थ करना ही सच्चा पुरुषार्थ है ।
पराक्रम, शक्ति सामर्थ्य या पुरुषार्थ तो प्रत्येक जीवात्मा में विद्यमान है। मगर उसका उपयोग भिन्न-भिन्न रूपो में हो रहा है । जो पुरुष शस्त्र का प्रयोग दूसरे पर न करके अपने ही ऊपर करता है, उसकी गणना मूर्यों में की जाती है। इसी प्रकार मसार से तिरने के जो साधन प्राप्त हुए हैं, उन साधनो से ससार में डूबने वाला जीव बालजीव कहलाता है।
जब यह बाल-भाव मिटता है तो साथ ही दृष्टि में भी परिवर्तन होता है। इस परिवर्तित दृष्टि को जनदर्शन सम्यग्दृष्टि कहता है । इस दृष्टि को प्राप्त करने के पश्चात् जो पुरुषार्थ होता है वही सच्चा पुरुषार्थ है ।
जीवन का सच्चा पुरुषार्थ स्फुटित करने के लिए