________________
सत्तरवां बोल-३४६
सकीर्तन का लाभ प्राप्त कर सकता है । इसके विपरीत जो लोभ नही तजता वह तुच्छ वस्तु के बदले मे नाम संकीर्तन के महान् लाभ से वचित हो जाता है । अरणक श्रावक को देव ने कुण्डल की दो जोड़िया दी थी, लेकिन अरणक ने उन्हे अपने पास नही रखा, क्योकि वह उसकी परिग्रह को मर्यादा से बाहर थी। अगर अरणक ने लोभ न जीता होता तो क्या वह मर्यादा मे स्थिर रह सकते थे ? जो व्यक्ति अपनी वस्तु को अनमोल मान कर पुद्गल के मोह मे नहीं पड़ता है, वही अपनी वस्तु की रक्षा कर सकता है । इसी प्रकार परमात्मा के नामसकीर्तन के फल की रक्षा भी वही कर सकता है जो नामसंकीर्तन के बदले में ससार की कोई भी वस्तु नहीं चाहता ।
तुममे से कोई कह सकता है कि हम परमात्मा के नामसकीर्तन के बदले मे सांसारिक पदार्थों की इच्छा करते ही कहा हैं ! ऐसा कहने वाले को यही उत्तर दिया जा सकता है कि अनेक लोग हमारे पास आते हैं और कहते हैं- मुझे अमुक काम के लिए जाना है, अतः मागलिक सुनना चाहता है। हालांकि साधु को किसी भी समय मांगलिक सुनाने में कोई बाधा नही है, फिर भी देखना चाहिए कि सुनने वाले की भावना क्या है ! वह तो मागलिक सुनकर अपने सासारिक कार्य की सफलता ही चाहता है। पर इस तरह सासारिक पदार्थों के प्रति ममता रख कर मागलिक सुनना तो परमात्मा के नामसकीर्तन को सासारिक पदार्थों के बदले मे बेचने के समान है। इसलिए आत्मा को निर्मल • रखना चाहिए और ससारिक पदार्थों के प्रति उत्पन्न होने वाली इच्छा को दबा रखना चाहिए। हम लोगो को प्रात्म