Book Title: Samyaktva Parakram 04 05
Author(s): Jawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
Publisher: Jawahar Sahitya Samiti Bhinasar

View full book text
Previous | Next

Page 371
________________ सत्तरवां बोल-३४५ के पानी का तो अन्त आ सकता है परन्तु मनोरथ का अन्त __नही पा सकता । श्रीउत्तराध्ययनसूत्र मे कहा है-दो माशा सोने की इच्छा रखने वाले की करोड़ों की सम्पत्ति से भी आशा-तृष्णा शान्त नही हुई । इस प्रकार आशा-तृष्णारूपी नदी के मनोरथरूपी जल से बाहर निकलना बडा कठिन है। बड़ी-बड़ी नदियो को पार करने मे तो बहुत से लोग समर्थ हुए होगे, पर आशा-नदी को पार करने में कोई विरले ही समर्थ हो पाते हैं। साधारण लोग इस नदी को पार नही कर सकते । आशा-नदी मे मनोरथरूपी जो पानी भरा हुआ है, . उसमे तृष्णा की तरगें उठती रहती हैं। जैसे नदी मे मगरमच्छ होते हैं, उसी प्रकार आशा नदी मे भी द्वेपरूपी मगरमच्छ होते हैं । वे आपस मे ही एक दूसरे को खा जाते हैं। वे यह विचार नहीं करते कि जैसे मैं दूसरे को खा जाता हू वैसे ही दूसरा कोई मुझे भी खा जाएगा । इसी प्रकार ससार मे पड़े लोग राग द्वेष के वश होकर एक दूसरे पर प्राक्रमण करना चाहते हैं। वे यह नही विचारते कि जिस प्रकार हम दूसरे पर आक्रमण करते हैं, उसी प्रकार दूसरे हमारे ऊपर भी आक्रमण करेंगे । नदी मे जब पूर आता है तब किनारे के छोटे छोटे पौधे भी बह जाते हैं । आशा नदी भी अपने किनारे पर उगे हुए धैर्य आदि गुणरूपी पौधो को बहा ले जाती है । नदी मे भंवर पडते हैं और उनमे बडे-बडे आदमो भी डूब जाते हैं, उसी प्रकार आशा नदी मे भी मोहरूपो भंवर पड़ते हैं जिनमे बड़े-बड़े भी डूब मरते हैं । आशा-नदी के दोनो ओर चिन्तारूपी दो किनारे हैं। अन्य नदियो को तो नौका

Loading...

Page Navigation
1 ... 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415