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अड़सठ बोल-३३१
मुझे जो ऋद्धि-सिद्धि मिली है उसका उपयोग भगवान् की ऐसी सेवा मे करना चाहिए जैसी सेवा आज तक किसी भी राजा ने न को हो । अपनी इस शुभ भावना को कार्यरूप मे परिणत करने का भी राजा को सुयोग मिल गया । राजा ने सुना- भगवान महावीर इस ओर पदार्पण कर रहे हैं । यह सम चार पाते ही राजा की प्रसन्नता का पारा न रहा। उसने बडे उत्साह के साथ प्रजाजनो को आज्ञा दी कि भगवान् को वन्दना करने के लिए जाते समय ऐसी तैयारी की जाये जैमी आज तक किसी ने न की हो । जब राजा मे इतना उत्साह हो तो प्रजा के और उसके नौकर-चाकरवर्ग मे भी उत्साह हो आना स्वाभाविक है । भगवान् को वदना करने के लिए राजा दशार्णभद्र ने अपूर्व तयारी की और प्रस्थान किया । राजा को अपनी ऋद्धि देखकर अभिमान हुया कि मेरे समान ऐसी तैयारी करके भगवान् को वन्दना के लिए और कौन गया होगा ? लोगो को नवीन कपडा या जूना मिल जाने पर भी जब अभिमान हो जाता है तो राजा को अपनी ऋद्धि देखकर अगर अभिमान उत्पन्न हुआ तो आश्चर्य ही क्या है ? मगर लोगो को समझना चाहिए कि ऐसे राजा का भी अभिमान न रहा तो दूसरो को तो बात हो क्या है ?
राजा दशार्णभद्र सबको दान-मान-सन्मान आदि से सतुष्ट करता हुआ अपनी ऋद्धि-सम्पदा के साथ भगवान की वन्दना के लिए निकला दूसरी तरफ शकेन्द्र भी भगवान् की वन्दना के लिए आये थे । इन्द्र ने राजा को ऋद्धि के साथ वन्दना करने आते देखा पर उसने राजा के हृदय के अभिमान को भी जान लिया । ज्ञानी इन्द्र ने विचार