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३२६-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
शका की जा सकती है कि मानजन्य बन्धे हुए कर्म तो भोगने ही पडते हैं ? इसका समाधान यह है कि अगर मान के कारण पहले बन्धे हुए कर्मों की निर्जरा न हो सकती तो शास्त्र मे ऐसा न कहा गया होता कि मान को जीतने से पहले बन्धे हुए कर्मों की निर्जरा होती है।
यहा यह भी पूछा जा सकता है कि शास्त्र में एक जगह ऐसा कहा है कि 'कडाण कम्माण न मोक्ख अत्थि' अर्थात किये कर्मों को भोगे बिना उनसे छुटकारा नही मिलता । इससे विपरीत यहा यह कहा गया है कि मान को जीतने से पहले बन्धे हुए कर्मों की निजरा होती है। इन दोनो कथनो मे परस्पर विरोध जान पड़ता है। इसकी सगति किस प्रकार बिठलाई जा सकती है ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार है -
__ कम भोगने तो पड़ते हैं, परन्तु उनके भोगने के मुख्य दो तरीके हैं । पहला तरीका यह है कि कर्मों को तपस्या आदि के द्वारा उदीरणा करके भोगा जाये और दूसरा तरीका यह है कि कर्म अपना प्रबाधा काल समाप्त होने पर स्वाभाविक रीति से उदय मे आयें और तब भोगे जाएँ । उदाहरणार्थ- रोगी को रोग' का दुःख तो सहन करना ही पड़ता है, परन्तु दवा का उपयोग करने से रोग की तीव्रता कम हो जाती है और साथ ही रोग जल्दी और सरलता से भोग लिया जाता है । इसी प्रकार कर्म भोगने तो पडते हैं परन्तु जो कर्म स्वाभाविक रूप से उदय मे आते हैं वे लम्बे समय तक और कष्टपूर्वक भोगे जाते हैं । लेकिन जिन कर्मों की तपश्चर्या प्रादि द्वारा उदीरणा की जाती है वे जल्दो और सरलतापूर्वक भोगे जा सकते हैं । कर्मों को प्रदेश से भोगना