________________
सड़सठवां बोल-३१६
सूत्र में भी कहा है :
उवसमेण हणे कोहं । अर्थात- उपशम-क्षमा से क्रोध का नाश करना चाहिए ।
जब अग्नि बढती जा रही हो तो उसे बुझाने के लिए उसके विरोधी पदार्थ - पानी का उपयोग किया जाता है, उसी प्रकार क्रोध को उपशान्त करने के लिए क्षमा का ही अधिक से अधिक उपयोग करना चाहिये । क्रोध करने से दूसरो को जो हानि होती है उसकी अपेक्षा स्वय क्रोध करने वाले को अधिक हानि उठानी पडती है। क्रोधी मनुष्य क्रोष करते समय समझता है कि मैं दूसरे की हानि कर रहा हूं, परन्तु यह मान्यता पडौसी का घर जलाने के लिए अपने घर में आग लगाने के समान मूर्खतापूर्ण है । अपने घर मे आग लगाने से पडौसी का घर जल भी सकता है और नही भी जल सकता, किन्तु अपना घर तो जल ही जाता है। इसी प्रकार क्रोध करने से दूसरो की हानि हो या न हो, मगर क्रोध करने वाले की हानि तो हो ही जाती है।
_स्व० केसरीचन्द जी भंडारी ने मुझे अगरेजी की एक पुस्तक दिखाई थी। उस पुस्तक मे यह बतलाया गया था कि क्रोध उत्पन्न होने पर शरीर से बर्जी, कटार, छुरी आदि शस्त्रो सरीखे पुद्गल निकलते हैं । जिस मनुष्य पर कोध किया जाता है उसे अगर क्रोध न आये अर्थात उसमे क्षमाभाव हो तो वे शस्त्र सरीखे पुदगल शात हो जाते हैं । अगर सामने वाले में भी क्रोध उत्पन्न हुप्रा तो उस दशा मे दोनो