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सत्तावनवां बोल-२६५
मम्यक्त्व की विशुद्धि करने से सुलभबोधिता प्राप्त करता है तथा दुर्लभबोधिता से निवृत्त होता है ।
व्याख्यान वचन को खराब कामो से निवृत्त करके, अच्छे कामों मे प्रवत्त करना हो वचन निरोध का प्रारम्भ है। इस प्रकार वचन का निरोध करने से आत्मा मे बहत शक्ति पाती है। वचन का दुरुपयोग न करते हुए परमात्मा के गुणगान में उपयोग करने से स्वाध्याय होता है और स्वाध्याय से प्रात्मा की शक्ति बढती है ।
कहा जा सकता है कि स्वाध्याय तो पांच प्रकार का बतलाया गया है । उसमे परमात्मा के गुणगान को स्वाध्याय नही गिना । ऐसी स्थिति मे परमात्मा का गुणगान स्वाध्याय कैसे कहा जा सकता है ?
इसका उत्तर यह है कि स्वाध्याय दो प्रकार से होता है-भाव से और अर्थ से । परमात्मा का गुणगान करने वाला भाव से तो स्वाध्याय ही करता है । परमात्मा का गुणगान करने मे वचन का सदुपयोग करना अथवा शास्त्र मे णमोकारमन्त्र की वडी महिमा बतलाई है-अत' णमोकार मन्त्र का जाप करने मे वचन का सदुपयोग करना भावस्वा. ध्याय ही है । णमोकारमन्म मे मन लगाकर वचन द्वारा उसका जाप करना स्वाध्याय ही है । इस प्रकार स्वाध्याय करने से आत्मा का बहुत लाभ होता है ।
जिस वचन का सदुपयोग करने से आत्मा को एकान्त लाभ होता है, उसका दुरुपयोग करके प्रात्मा का अहित