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२६८-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
श्रीपति एक गोपाल भजे,
नहि मानत शक कोउ जबर की । जिसको हरि की परतीति नहीं,
'करी मिल पाश प्रकटवर की ।' अर्थात् श्रीपति कहते हैं कि जो व्यक्ति परमात्मा का भजन करने में अपनी जीभ का सदुपयोग न करके लोभलालच से प्रथवा किसी अन्य कारण से दूसरे के गुणगान करने में जीम का दुरुपयोग करता है, वह दूसरे की झूटी प्रशंमा करके वास्तव में अपने मस्तक पर पाप का बोझा लादता है, ऐसे पापी की जिह्वा फटो । श्रीपति कवि कहते है~ मैं तो सिफ गापाल का ही भजन कर सकता हू और उन्ही का गुणगान कर सकता हू । जिन्हें परमात्मा पर विश्वास न हो वे लोग भले ही अकबर की आशा करें, मगर मैं तो गोपाल के सिवाय और किसी से कोई आशा नही करता।
श्रीपति का कवित्त सुनकर बादशाह प्रसन्न हुआ। लोग समझ गये कि श्रीपति अपनी प्रतिमा के पक्के हैं। बादशाह ने स्वीकार किया कि परमात्मा के सिवाय और कोई बडा नही है।
यह घटना वास्तव में घटी है या नही, इससे हमारा कोई सम्बन्ध नहीं है । हमे तो इस घटना के वर्णन से इतना ही सार ग्रहण करना है कि जीभ का उपयोग अगर परमात्मा का भजन करने में किया जा सकता है तो फिर दूसरे सासारिक कार्यों में उमका दुरुपयोग करने की क्या आवश्यकता है ? परमात्मा को छोडकर अन्य कामो मे जाम का उ,योग