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३०६ - सम्यक्त्यपराक्रम ( ५ )
इन्द्रियों का निग्रह करने और न करने में क्या अंतर है और क्या हानि-लाभ है, यह बतलाते हुये एक संस्कृत के कवि ने कहा है :
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विभेषि यदि संसारान्मोक्षप्राप्ति च कांक्षसि । तदेन्द्रियजय कर्तुं स्फोरय स्फारपौरुषम् ॥ श्रापदां कथितः पन्था इन्द्रियाणामसंयमः । तज्जयः सम्पदां मार्गो, येनेष्ट तेन गम्यताम् ॥ इन्द्रियाण्येव तत्सर्व यत्स्वर्ग नरकावुभौ । निगृहीतानि सृष्टाणि स्वर्गाय नरकाय च ॥
अर्थात -- अगर तू इस संसार से डरता हो और मोक्ष प्राप्त करना चाहता हो तो इन्द्रियो का निग्रह करने का प्रयत्न करा । इन्द्रियो को वश मे न करना श्रापदा का मार्ग है और उन्हें वश मे करना सपदा का मार्ग है । इन दोनों में से तुझे जो मार्ग रुचिकर हो, उसी पर तू चल । स्वर्ग और नरक भी इन्द्रियो में ही हैं । इन्द्रियो के निग्रह से स्वर्ग मिलता है और निग्रह न करने से नरक मिलता है । इन दोनो में तुझे जो पसन्द हो, उसे पाने का प्रयत्न कर ।
इन्द्रियो का निग्रह करने के लिए तो सभी कहते हैं, विकट प्रश्न तो यह है कि इन्द्रियो का निग्रह किया किस प्रकार जाये ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि पदार्थों के असली स्वरूप का विचार करके उन्हे निस्सार समझना चाहिये और उन निस्सार पदार्थों से विरक्त होकर, इन्द्रियों को उनकी ओर जाने नही देना चाहिए । साथ ही, जिन कामो से आत्मा का कल्याण होता हो उन्ही कामो मे प्रात्मा को प्रवृत्त करना चाहिए । इन्द्रियों को वश में करने का यही उपाय है ।