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३०४-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
प्रश्न-फासिन्दियनिग्गहेणं भंते ! जीवे कि जणयइ?
उत्तर- फासिन्दियनिग्गहेणं मणुण्णामणण्णेसु फासेसु रायदोस निग्गह जणयह, तप्पच्चइयं कम्मं न बघइ, पुष्वबद्ध धनिज्जरेइ ॥६६॥
शब्दार्थ प्रश्न-भगवन् ! श्रोत्रेन्द्रिय (कान) का निग्रह करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर-गौतम ! श्रोत्रेन्द्रिय का निग्रह करने से मनोज्ञ या अमनोज्ञ (सुन्दर या असुन्दर) शब्दो में राग-द्वेष रहित प्रवत्ति होती है और इससे राग-द्वेष के कारण उत्पन्न होने वाले कर्मों का बंध नहीं होता और पहले बधे हुए कर्मों का भय होता है।
प्रश्न- भगवन् ! चक्षु इन्द्रिय का निग्रह करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर--चक्षु-इन्द्रिय का निग्रह करने से सुन्दर-असुन्दर रूपों (दृश्यो) में राग-द्वेषरहित प्रवृत्ति होती है और इससे राग-द्वेष के कारण उत्पन्न होने वाले कर्मों का बध नही होता और पहले बंधे हुए कर्मों का क्षय होता है ।
प्रश्न-भगवन् ! घ्राणेन्द्रिय (नाक) का निग्रह करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर-घ्राणेन्द्रिय का निग्रह करने से जीव सुगन्ध और दुर्गन्ध में राग-द्वेष रहित हो जाता है और इससे रागद्वेष के कारण उत्पन्न होने वाले कर्मों का बध नहीं होता भौर पहले बधे हुए कर्मों का क्षय होता है ।