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३०८-सम्यक्त्वपराक्रम (५) सुनाई देते हैं। कहने का आशय यह नहीं है कि कान का निग्रह करने के लिए कान को नष्ट कर डालो या कानो में फोहा लगा लो । परन्तु खराब बातों की तरफ कान को जाने मत दो। फिर भी अगर खराव शब्द कान में प्रा पढ़ें तो उन पर ध्यान मत दो, जैसे कि माता-पिता की निन्दा के शब्दो पर ध्यान नही दिया जाता है। कान में जो शब्द प, उनके कारण प्रात्मा मे राग द्वेप उत्पन्न नही होने देना चाहिए । शब्द के कारण राग द्वेष उत्पन्न न होने देना ही श्रोग-विजय प्राप्त करने का मार्ग है । इसी प्रकार प्रत्येक इन्द्रिय के मनोज्ञ (पसन्द) और अमनोज्ञ (नापसन्द) विषय प्राप्त करके उन पर राग द्वेप न होने देना ही इन्द्रियनिग्रह का मार्ग है । प्राख से माता भी देखी जाती है, वहिन भी देखी जाती है और दूसरी स्त्री भी देखी जाती है । सबको देखने वाली घाख एक ही है, पर दृष्टि मे अन्तर होता है। इसी अन्तर के कारण राग-द्वप की उत्पत्ति होती है। प्रतः यह अन्तर न रखते हए अपनी पत्नी के अतिरिक्त समस्त स्त्रियो को माता या बहिन के समान मानने से आँख का निग्रह हो सकेगा । प्रौख का निग्रह हो जाने से राग-द्वेष उत्पन्न नहीं होगा।
इसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और स्पर्शनन्द्रिय प्रादि का भी निग्रह करना चाहिए । सारांश यह है कि पसद या नापसद - कोई भी वस्तु सूबने मे- चखने में या छूने में आ जाये तो इद्रियों को इस प्रकार प्रवृत्त न किया जाये कि इन परिवर्तनशील पदार्थों मे राग-द्वेप उत्पन्न हो। यह विचार करना चाहिए कि वस्तु तो अच्छी से बुरी और धुरी से अच्छी होती ही रहती है। इसमें मैं रागद्वेप क्यो