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३१०-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
दिया जाये !
एक दिन राजा नगर-निरीक्षण करने निकला । प्रधान साथ ही था । नगर के चहुं ओर खाई थी । पानी भर जाने के कारण खाई में से बदबू निकल रही थी । राजा और प्रधान उसी खाई के पास से निकले । ख ई से निकलने वाली दुर्गन्ध असह्य थी। राजा ने प्रधान से कहा - प्रधान, देखो इस खाई का पानी कितना बदबूदार है ? इतना कहकर राजा ने अपनी नाक दबा ली । उस समय भी प्रधान ने यही उत्तर दिया - ‘महाराज | इष्ट से अनिष्ट और कनिष्ट से इष्ट हो जाना तो वस्तु का स्वभाव ही है।' प्रधान का उत्तर सुनकर राजा ने कहा-'प्रधान तुम बहुत हठी हो । क्या सब चीजें ऐसी हो सकती हैं ? ' प्रधान बोला- महाराज मैं हर नहीं करता, वस्तु का सच्चा स्वरूप कह रहा हूँ। आप कुछ भी फरमा, मुझे तो आपके प्रति भी समभाव रखना है और वस्तु के प्रति भी समभाव रखना है।
घर पहचकर प्रधान ने विचार किया- वस्तु-स्वरूप के सम्बन्ध में राजा के साथ मेरा मतभेद बढता चला जा रहा है मुझे किसी प्रकार राजा को अपनी बात की खातिरी करा देना चाहिए कि मैं जो कुछ कहता हू वह सत्य हैअसत्य नही । इस प्रकार विचार कर उसने अपना एक विश्वस्त आदमी भेजकर, खाई का बदबूदार पानी एक घडा भरवाकर मगवाया । प्रधान ने उस पानी को अपने ४६ प्रयोगो द्वारा परिष्कृत किया । तत्पश्चात् उसने वह पानी राजा के पानी भरने वाले को दिया और कहा-'महाराज जव भोजन करने बैठे तो पीने के लिए यह पानी रख देना।