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२६०-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
सम्यक्त्व अच्छा है । तीसरा सम्यक्त्व क्षायिक है । जब मिथ्यात्व प्रदेश और उदय--दोनो से पृथक हो गया हो अर्थात् मिथ्यात्व किसी भी प्रदेश मे अथवा उदय में न रहे तब क्षायिक सम्यक्त्व होता है ।
एक सम्यक्त्व के होने से ही प्रात्मा किस प्रकार उन्नत हो सकता है, इस सम्बन्ध मे श्रेणिक का उदाहरण दिया गया है । सम्यक्त्व होने पर उसके सहायक अन्य गुण भी उत्पन्न हो जाते हैं और उस अवस्था मे आत्मा का भी अभ्युदय होता है ।
राजा श्रेणिक की रानी चेलना थी। चेलना की सदैव भावना बनी रहती थी कि मेरा पति किस प्रकार धार्मिक बने ? उसकी यह मान्यता थी कि अगर मैं अपने पति को धर्मभावना से ओतप्रोत करू तो ही सच्ची पतिव्रता पत्नी कहलाऊँ । दूसरी तरफ श्रेणिक सोचता था-- 'पत्नी को क्या अभी से धर्म की लत लग गई है । इसे इस लत से किसी प्रकार छुडाना चाहिए।' इस प्रकार पति और पत्नीद नो का ध्येय एक दूसरे से विपरीत था और दोनो ही अपने अपने ध्येय के अनुमार कार्य करने में जुटे हुए थे। रानी सोचती थी महाराज मुझे ठगने का प्रयत्न करते हैं और मैं राजा को शुद्ध करने का प्रयत्न करती हू । राजा सोचता था-रानी को धर्म की बीमारी लग गई है और मैं उसे इस बीमारी से बचाने की कोशिश कर रहा हू ।
श्रेणिक राजा रानी को धर्मश्रद्धा से विचलित करने के लिए कई बार छल-कपट करता था । अतएव रानी ने सबको सूचना कर दी थी कि जो महात्मा चार ज्ञान के