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२८८-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
ज्ञान का प्रकाश बुझता नही है और उस प्रकाश में श्रेष्ठ ज्ञान तथा दर्शन से अपने आत्मा को सयोजित करके सुन्दर भावनापूर्वक विचरता है।
व्याख्यात
भगवान् ने दर्शनसम्पन्नता से मिथ्यात्व का नाश होना बतलाया है । परन्तु मिथ्यात्व का नाश तो क्षयोपशम सम्यक्त्व से भी होता है, फिर दर्शनसम्पन्नता से विशेष लाभ क्या हुआ? इसका उत्तर यह है कि जैसे खनी हवा मे रखे दीपक के बुझ जाने का भय रहता है, उसी प्रकार क्षायो. पशमिक सम्यक्त्व के नष्ट होने का भी भय बना रहता है। क्षायिक सम्यक्त्व के लिए भय नही है। इसी कारण भग. वान् ने उत्तर मे 'पर' शब्द का प्रयोग करके यह सूचित किया है कि दर्शनसम्पन्नता से मिथ्यात्व का पूर्ण नाश होता है और वह क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त होता है जिसके नाश होने का भय नही रहता । दर्शनसम्पन्नता से जीव को मिथ्यात्व के नाश के साथ क्षायिक सम्यक्त्व को भी प्राप्ति होती है।
ससार-भ्रमण का प्रधान कारण मिथ्यात्व ही है । कारण के बिना कार्य नही होता । ससार-भ्रमण कार्य का कारण मिथ्यात्व है। दर्शनसम्पन्नता मिथ्यात्व का नाश करती है और कारण के अभाव में कार्य किस प्रकार हो सकता है ? जो वस्तु जैसी है उससे विपरीत मानना ही मिथ्यात्व है । मिथ्यात्व का छेद हो जाने से ससार-भ्रमण भी नहीं करना पड़ता।
मिथ्यात्व ससार का कारण है और सम्यक्त्व मोक्ष का कारण है। दर्शनसम्पन्न व्यक्ति मिथ्यात्व का छेदन करके