________________
साठवां बोल-२८७
के विषय में अलग प्रश्न क्यो किया गया है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि श्रुतज्ञान साव्यवहारिक है, जब कि दर्शन सांव्यवहारिक नही है। ज्ञान का तो आदान प्रदान हो सकता है पर दर्शन का आदान-प्रदान नहीं हो सकता। इसके अतिरिक सम्यग्ज्ञान तभी उत्पन्न होता है, जब सम्यग्दर्शन विद्यमान हो । दर्शन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नही हो सकती। शास्त्र में कहा है--'नादसणिस्स नाण।' अर्थात् जिस व्यक्ति में दर्शन अर्थात् सम्यक् श्रद्धा नहीं होती उसे सम्यग्ज्ञान उत्पन्न नही हो सकता । उसका ज्ञान भी अज्ञान कहलाता है । वही ज्ञान सच्चा है जो सम्यक्त्व के साथ होता है। ज्ञान भी क्षायोपशमिक भाव है और अज्ञान (मिथ्याज्ञान) भी क्षायोपशमिक भाव है । मगर दोनो मे सम्यक्त्व होने और न होने के कारण ही अन्तर है। अतएव गौतम स्वामी अब दर्शन के विषय मे भगवान् से प्रश्न करते हैं --
मूलपाठ प्रश्न-दणसपनयाए ण भते ! जीवे कि जणयइ ?
उत्तर-दसणसपन्नयाए गं भवमिच्छत्तछेयणं करेइ, पर न विझायइ, पर अविज्झमाणे अणुत्तरेण नाणदसणेणं प्रप्पाणं संजोएमाणे सम्म भावमाणे विहरइ ।। ६० ।।
शब्दार्थ प्रश्न-- भगवन् । दर्शन प्राप्त करने से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर- गौतम । दर्शनसम्पन्न ( सम्यग्दृष्टि ) जीव ससार के मूल मिथ्यात्व प्रज्ञान का छेदन करता है । उसके