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२६६-सम्यक्त्वपराक्रम (५) देव को देखकर राजा से कहा-- देखिये महाराज ! यह आपके धर्मगुरु जा रहे है । हाथ मे मछली पकड़ने का जाल लिए, जाते हुए साधु वेषधारी देव को देखकर राजा ने विस्मय के साथ पूछा--'यह क्या है ?' उसने उत्तर दियाराजन् ! मैं मछलिया पकडने जा रहा है। मैं तुम्हारी आँखो के सामने आ गया है, इसलिए भले ही मुझे दोषी गिन लो, पर वास्तव में महावीर भगवान् के सभी साधु मेरे समान ही हैं।
राजा के लिए यह समय सम्यक्त्व से विचलित होने का था, मगर उसकी श्रद्धा तो वज्रलेप के समान दृढ थी। उसने उत्तर मे कहा-अपनी शिथिलता के लिए अपने प्रात्मा को दोष दो । सब साधओं को झूठा कलक मत लगाओ । भगवान् महावीर के साधु तुम सरीखे शिथिलाचारी हो ही नही सकते !
राजा श्रेणिक साधु वेषधारी देव को फटकार बतलाकर थोडा और आगे बढे वहा उन्होने गर्भवयी स्त्री की तरह मोटे पेट वाली साध्वी अपनी ओर आती देखी । साध्वी कभी गर्भवती नही हो सकती, फिर भी साध्वीवेष मे उस गर्भवती को देखकर राजा ने कहा--'यह कौन अभागिनी है !' साध्वीवेषधारी देव ने कहा--राजन् ! मैं आज अचानक तुम्हारी दृष्टि में आ पडी हूं । नहीं तो भगवान् महावीर की सभी साध्विया मुझ जैसी दुराचारिणी ही है। राजा ने उसे उपालम्भ देते हुए कहा- 'तुम प्राप दुराघारिणी हो, इसे कारण सभी साध्वियो को कलकित करना चाहती हो !'
धर्मश्रद्धा को डिगा देने वाली घटनाएँ देखकर भी