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२६२-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
। मुझे बचायार कहने
आपका कहना वही मान सकतो है जो आपकी आज्ञा माथे चढाती हो । मैं तो दूसरे ही कारण म यहा अई हूं । मैं आपको किसी प्रकार का कष्ट देने नही आई । आपका मनोरजन करने और आपको सुव पहुंचाने के लिए ही आई हूं।
इतना कहते कहते वेश्या, साधु के स्थान में घुस गई। साधु समझ गये कि यह मुझे भ्रष्ट करने की बुद्धि मे यहा आई है। मैं अपने शीलवत पर दृढ हू किन्तु जब यह बाहर निकलेगी और कहेगी कि मैं साधु के शीलवन का भग कर आई हु, तब मेरा कहा कौन सुनेगा ?
मह त्मा ने उस समय प्रपनी लब्धि द्वारा विकराल रूप धारण किया । यह देवकर वेश्या घबराई और कहने लगी - महाराज । क्षमा करो । मुझे बचायो । मैं तो राजा श्रेणक के कहने से आई हू । मैं तो अभी यहा से भाग जाता, मगर क्या करू लाचार हूँ। बाहर ताला लग गया है। बाहर निकलने का कोई उपाय नही है । आप मुझ पर दया कीजिये।
उन महात्मा ने वैक्रिय लब्धि द्वारा अपना वेष ही बदल डाला था । शास्त्र मे कारणवश वेष बदल लेने का विधान है। अपवादरूप मे साधुलिंग को बदलने का शास्त्र मे कथन किया गया है । चारित्र की रक्षा तो उस समय भी की जाती है किन्तु अवसर आ जाने पर लिंग बदल डालने का अपवाद मार्ग मे कथन है ।
एक ओर यह घटना घट रही है। दूसरी ओर राजा, रानी से कह रहा है तुम अपने गुरु की इतनी प्रशसा करती थी, अव जग उनका हाल तो देखो! उन्होने तो एक वेश्या घर मे घुसेड रखी है ।
श्रणक के कहने