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साठवां बोल - २६७
राजा श्रणिक की निश्चल श्रद्धा मे भगवान् महावीर के धर्म के प्रति लेशमात्र भी सन्देह उत्पन्न नही हुआ । देव, राजा की धर्मश्रद्धा देखकर चकित रह गया । अन्त में उसने अपना मायाजाल समेट लिया । वह राजा के पास आया और कहने लगा -- महाराज ! तुम्हारी धर्मपरीक्षा करने के लिए ही मैंने यह स्वाग रचे थे ।
कहने का श्राशय यह है कि व्रत - प्रत्याख्यान करने की शक्ति न होने पर भी अगर सच्ची धर्मश्रद्धा कायम रहे अर्थात् क्षायिक सम्यक्त्व हो तो आत्मा का कल्याण श्रवश्य होता है । अगर तुम अपने आत्मा का कल्याण करना चाहते हो तो तुम्हे भी सम्यक्त्व मे दृढ रहना चाहिए । इस विषम पचमकाल मे श्रद्धा को विचलित करने वाली अनेक बातें सुनी और देखी जाती हैं । मगर हृदय में सच्ची श्रद्धा हो तो ससार मे कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो तुम्हे धर्म से डिगा सके । धर्मश्रद्धा मे दृढ रहने से ही तुम्हारा कल्याण होगा ।