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सत्तावनवां बोल-२६६
करग तो, कवि के कथनानुसार एक प्रकार की धृष्टता है । परमात्मा त्रिभुवननाथ हैं, अतः उनका ही गुणगान करना उचित है । परमात्मा तीन भुवन के नाथ हैं अर्थात् तीनों लोको में रहने वाले समस्त जीवो के स्वामी हैं । अतएव जगत् मे रहने वाले किसी भी प्राणी, भूत, जीव तथा सत्त्व की प्रासातना न करना परमात्मा की प्रार्थना है । जिसमें जो गुण न हो, उस गुण का उसमे प्रारोप करना भी उसकी प्रासातना है । जिममे जो गुण है, उसके यथार्थ गुण का वर्णन करना और अगर अपने मे ऐसा करने की शक्ति न हो तो यह कहना कि- 'जिन भगवान् ने जो कुछ कहा है वह नि.शक है, सत्य है ।' इस प्रकार कह कर आत्मा को परमात्मा के गुणगान मे प्रेरित करो । ऐसा करने से समझ लो कि तुम्हारा कल्याण तुम्हारे ही हाथ मे है ।
भगवान् ने वचननिरोध से अनेक लाभ बतलाये हैं । जिस व्यक्ति को भगवान् पर भरोसा होगा वह परमात्मा का गुणगान करने में हो वचन का सदुपयोग करेगा। इस प्रकार वचन का सदुपयोग और निरोध करने वाला पुरुष अपने आत्मा का अवश्य कल्याण साध सकता है ।