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। उनसठवां बोल-२८३
प्रश्न का निश्चितरूप से तुम यही उत्तर दोगे कि हमें बचाने वाला मनुष्य ही अच्छा लगेगा। यह बात किसी के कहने से या किसी दूसरे की प्रेरणा से नहीं कहते । यह कथन आत्मसाक्षी का कथन है तो जिस प्रकार तुम्हे यह पसन्द नही है कि कोई तुम्हे मारे, उसी प्रकार दूसरे प्राणियो को भी यह पसन्द नहीं है कि तुम उन्हे मागे । अतएव किसी को न मारना धर्म है । तुम्हारे सामने झूठ बोलकर कोई तुम्हे ठग ले जाये अथवा तुम्हारी कोई चीज चुरा ले ज ये तो क्या तुम यह पसन्द करोगे ? तो क्या दूसरो को ठगना या दूसरो की कोई चीज छीन लेना तुम्हारे लिए उचित है ? अतएव जैसा व्यवहार तुम अपने लिए पसन्द नही करते वैसा व्यवहार तुम दूसरो के साथ भी मत करो। इतना ही नहीं, बल्कि अगर तुम्हारी शक्ति है तो उस शक्ति का उपयोग दूसरो की सहायता के लिए करो । अपनी शक्ति का सदुपयोग करना स्व-पर का कल्याण करना है । शक्ति होने पर भी अगर दूसरो की सहायता मे उसका उपयोग नहीं करते तो तुम्हारी शक्ति किस काम की है ? शक्ति होने पर भी दूसरो की सहायता न करने वाला कैसा कहलाता है, इस विषय मे एक प्राचीन कथा सुनाता हू।
राजशेखर नामक एक पडित बहुत संकटमय अवस्था मे था । खाने के लिए उसे भरपूर अन्न भी नहीं मिलता था । ऐसी दुखद अवस्था मे भी उसने धीरज नहीं छोड़ा। उसने विचार किया-- अगर मैं पुरुषार्थ करूँगा तो मेरी दरिद्रता दूर हो जायेगी। इस प्रकार विचारकर वह आजी. विका की पूर्ति के लिए धारा नगरी मे ( वर्तमान धार में ) आया ।