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२५६-सम्यक्त्वपराक्रम (५) होकर बैठना चाहिए । साधु के बैठने तथा गमनागमन के तरीके से साधु की परीक्षा होती है । उत्तराध्ययन सूत्र में कहा है कि श्रेणिक राजा ने अनाथी मुनि को शात तथा गम्भीर भाव से बैठा देखकर ही समझ लिया था कि वे मुनि हैं। कहने का भावार्थ इतना ही है कि साधु का उठना-बैठना वगैरह शास्त्रानुकूल ही होना चाहिए ।
साधुओ के लिए शास्त्र में विशेषत: कायोत्सर्ग करने का विधान किया गया है । कायोत्सर्ग तो तुम श्रावक भी 'माणेणं मोणेण अप्पाणं वोसिरामि' आदि पाठ बोलकर करते हो। पर केवल पाठ बोल देने से कायोत्सर्ग नहीं होता। कायोत्सर्ग करना सरल नही है । कायोत्सर्ग अर्थात काय का त्याग करना-काया पर तनिक भी ममता न रखना । चाहे जैसा उपसर्ग आवे, काया को डिगने न देना ही सच्चा कायोत्सर्ग है । उदाहरण के लिए -किसी प्रकार का अपराध न करने पर भी सोमल ब्राह्मण ने गजसुकुमार मुनि के मस्तक पर धधकती हुई अ.ग रख दो थी । फिर भी गजसुकुमार मुनि तनिक भी विचलित न होते हुए कायोत्सर्ग मे ही स्थिर रहे । आज जो कायोत्सर्ग किया जाता है उसमें तो मच्छर के काटने पर भी स्थिर नहीं रहा जाता । कायोत्सर्ग करना कठिन अवश्य है परन्तु अभ्यास करने पर वह सरल भी है। अाजकल के लोग कायोत्सर्ग करने मे कितने सहनशील बने रहते हैं, इसके लिए एक सुनी हुई घटना कह सुनाता हूं।
एक गरीब श्रावक था । उसने सोचा मेरी नीयत साफ है, फिर भी मुझे कोई उघार नही देता । ऐसी दशा मे काम चलाने के लिए कोई उपाय करना चाहिये । पडोस में रहने वाला सेठ धार्मिक है । जब वह सामायिक में बैठे