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पचपनवां बोल-२५५
में प्रवृत्त करना भी कायगुप्ति ही है। प्रशस्त और अप्रशस्त की व्याख्या मनःकल्पित नहीं होनी चाहिए वरन् शास्त्र में इनकी जो व्याख्या की गई है वही स्वीकार करना चाहिए। हरएक आदमी अपनी मनमानी व्याख्या करने लगेगा तो ऐसी दशा मे प्रशस्त और अप्रशस्त के अनेक रूप हो जाएंगे। प्रतएव प्रशस्त. और अप्रशस्त की शास्त्रसम्मत व्याख्या ही स्वीकार करना चाहिए ।
शास्त्र कहते हैं - कायगुप्ति दो प्रकार की होती है । एक सामान्य और दूसरी विशेष । अप्रशस्त में से निकालकर प्रशस्त मे काय को स्थिर करना सामान्य कायगुप्ति है और कायगुप्ति के विशेष नियमो का पालन करना विशेष काय गुप्ति । कायगुप्ति का पालन करने वाले को शयन, आसन और वस्तु-स्थापन आदि क्रियाएँ शास्त्रसम्मत रीति से ही करना चाहिए। साध के शयन के विषय में शास्त्र मे कहा है कि साधु को बिना कारण निद्रा नही लेना चाहिए । निद्राशील साधु कायगुप्ति का पालन नहीं कर सकता । अगर निद्रा लिए बिना काम चल ही न सकता हो तो गीतार्थ साधु को एक पहरा और अगीतार्थ साधु को दो पहर से अधिक नीद नही लेना चाहिए । निद्रा लेने के इस विधान मे भी अपवाद है। इस अपवाद का सेवन न किया जाये तो अच्छा ही है परन्तु अपवाद सेवन के बिना काम न चल सकता हो तो शास्त्रविधि के अनुसार ही निद्रा ली जा सकती है ।
वस्तु को धरने-उठाने तथा मल-मूत्र का त्याग करने आदि में भी शास्त्र विहित नियमो का पालन करना चाहिए। इसी प्रकार कायगुप्ति पालने वाले साधु को बैठने आदि में भी कुचेष्टा नहीं करना चाहिए किन्तु श त तथा गम्भीर