________________
संतालीसवां बोल-१७१
कहने का आशय यह है कि जो लोग निर्लोभताअकिंचनता को स्वीकार करते हैं, उन्हे अर्थलोभी लोग भी छोड देते हैं । निर्लोभ मनुष्य ही प्राखिर देवो और मनुष्यो द्वारा पूजनीय बनता है । वही सुख और शान्ति प्राप्त करता है । इससे विपरीत, जिन्होने धन का लोभ नही त्यागा, वे इस' लोक में भी हाय-हाय करते हैं और परलोक में भी दुख पाते हैं।
शास्त्र में यह बात यद्यपि साधुनों को लक्ष्य करके कही गई है, पर गृहस्थो को भी इस बात पर विचार करना चाहिए कि धन के लोभ से कितना दुख होता है ! यह तो सभी जानते हैं कि लोभ से धन की प्राप्ति नहीं होती। ऐसी स्थिति मे धन की आवश्यकता होने पर भी लोभ करने से क्या लाभ है ?लोभ का कही अन्त नही और जहा लोभ है वहा पाप का पोषण होता है । गहरा विचार करने से तुम्हें भी विदित हुए बिना नहीं रहेगा कि दुःख का मूल कारण धन है । कुछ लोग धनिको को सुखी मानते हैं, पर धनिको से पूछो कि वे सुखी हैं या दुखी ? वास्तव मे धनवानो को सुखी समझना भ्रम मात्र है । प्राय: देखा जाता है कि जिनके पास धन है, वही लोग अधिक हाय-हाय करते हैं ! जहां जितना ज्यादा ममत्व है, वहा उतना ही ज्यादा
कहा जा सकता है कि हम तो धनिको को आनन्द मानते हुए देखते हैं, परन्तु इस सम्बन्ध मे ज्ञानीजनो का कथन है कि धन वास्तव में सुख का कारण नही है । सुखी असल में वही है, जिसने ममता पर विजय प्राप्त करली है । जो लोग ममत्व मे फंसे हैं वे दिन-रात हाय-हाय करते