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२४४-सम्यक्त्वपराक्रम (५) चाहिए ? जब किसी की वस्तु मैंने उधार ली है तो मुझे वापिस सौपनी ही चाहिए ।
गाधीजी जब अफ्रीका मे थे तो उन्हे ईसाई बनाने के लिए एक बाई ने बहुत प्रयत्न किया था । जब उसके सब प्रयत्न निष्फल हुए तब उसने गाघोजी से कहा अपन पापी तो हैं ही और अपन से पाप होते हा रहते हैं । अगर हम इन पापो का फल भोगने बैठे तो कही अन्त ही नही आएगा । अतएव हमे ईसा की शरण में जाना चाहिए । जो ईसा की शरण में चले जाते हैं उनके पाप का फल ईसा भोग लेते हैं और शरणागत लोग पाप के फल से बच जाते हैं । इस कथन के उत्तर मे गाघोजी ने कहा- 'यह कैसा धर्म है ! पाप से तो डर-T नही और पाप के फल से डर कर ईसा की शरण मे जाना। यह सर्वथा अनुचित है । 'जब हमने पाप किया है तो उसका फल भी हमे ही भोग । चाहिए।'
इसी प्रकार जब रोग आवे तो सोचना चाहिए कि मेरे किये कर्म मुझे भोगना ही चाहिए । इसमें मुझे दुख का अनुभव नही करना चाहिए । इस प्रकार विचार करके वेदना के समय दुःख न मानने से अर्थात् आर्तध्यान न करने से और उसके बदले धर्मध्यान करने से कमबन्ध भी ढीला पड जाता है ।
इस श्लोक को पुरुषाकार मानकर लोकस्थिति के विषय मे विचार करना चाहिए, यह धर्मध्यान का चौथा प्रकार है । स्वर्ग और नरक इस शरीर मे है . शरीर मे नीचे नरक, मध्य में मनुष्यलोक और ऊपर स्वर्ग हे । नवग्रे वेयक के विषय में कहा जाता है कि अपनी गर्दन ही