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तिरेपनवां बोल - २४५
नवग्रैवेयक है । इस प्रकार अपने शरीर को चौदह राजू लोक का नक्शा मानकर लोकस्थिति के विषय में विचार किया जाये तो मन धर्मध्यान मे प्रवृत्त होता है ।
कहने का आशय यह है कि धर्मध्यान की सहायता से प्रार्त्तध्यान से बचाव हो सकता है और मन को एकाग्र किया जा सकता है । धर्मध्यान करना और आर्तध्यान से बचते रहना भी मनोगुप्ति का साधन है । मनोगुप्ति के विषय मे कहा भी है :
विमुक्तकल्पनाजालं समत्वेषु प्रतिष्ठितम् । श्रात्माराम मनस्तज्र्मनोगुप्तिः सदाहृता ॥
अर्थात् कल्पना के जाल से बाहर निकलकर समभाव . में स्थिर होना, प्रात्तध्यान और रौद्रध्यान में से निकलकर . धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान में प्रवृत्त होना और मन को आत्म-विचार में ही तन्मय कर देना मनोगुप्ति है । मन जब आत्मा में ही रमण करता है अन्यत्र नहीं जाता, तभी पूर्ण मनोगुप्त होती है
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साधारणतया तो समिति और गुप्ति का मार्ग साधुनों के लिए है, परन्तु इस मार्ग को समझकर तुम लोग भी अगर मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करोगे तो तुम्हारे आत्मा का भी बहुत लाभ होगा । श्रार्त्तध्यान और रौद्रध्यान से निवृत्त होना ही गुप्ति है । इस प्रकार की गुप्ति का पालन गृहस्थ भी कर सकता है । मनोगुप्ति का पालन करने से दुख भी सुख मे परिणत मे परिणत हो सकता है ।