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बावनवां बोल-२३१
वैसा ही दूसरों को दिखाया जाये, समझाया जाये तथा सुनाया जाये, यही सत्य है । किन्तु अगर वाक्चातुर्य से या असावध नी से उन्ही शब्दो द्वारा दूसरो को भ्रमणा उत्पन्न हो तो उसे सत्य नही कहा जा सकता। सक्षेप में वास्तविक विचार, वाणी तथा व्यवहार सत्य कह रता है । महाभारत मे भी कहा है --
अविकारितम सत्य सर्ववर्णेषु भारत ! -
अर्थात्-~समस्त वर्णों मे विकाररहित रहने वाले को सत्य कहते हैं ।
सत्य की मूर्ति किसी पाषण की बनी नही होती और न. उसका कोई स्थान ही नियत होता है । इस देह मे रहे हुए जीव की भाति सत्य सर्वत्र व्याप्त है । कोई वस्तु या कोई स्थान ऐसा नही जहा सत्य न हो । जिस वस्तु मे सत्य नहीं है वह वस्तु ही किसी काम को नही रहती। जैसे सूर्य मे सत्य वस्तु प्रकाश है । अगर सूर्य मे से प्रकाश निल जाये तो उसे कोई भी सूर्य नहीं कहेगा । दूध मे सत्य वस्तु घा है। अगर दूध में से घी निकल जाये तो उसे वास्तव में दूध नहीं कहा जा सकता । कहने का आशय यह है कि सत्य उस स्वाभाविक और वास्तविक वस्तु का नाम है, जिसके होने से किसी वस्तु. विचार, वाणी या काय वगैरह के नाम रूप तथा गुणो मे परिवर्तन न हो सके । सत्य अपरि र्तनशील और स्वाभाविक है ।
सत्य एक व्यापक और सार्वभौम सिद्धान्त है ससार मे विभिन्न मत हैं और उनके सिद्धान्त अलग-अलग हैं । कुछ मतो के बाह्य सिद्धान्तो मे तो इतनी अधिक भिन्नता