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२३०-सम्यक्त्वपराक्रम (५) है । अतएव यहां सत्य के विषय में कुछ विशेष विचार करने की आवश्यकता है।
जो नित्य है, अविनाशी है और विकारो से रहित है, वह सत्य कहलाता है। अविनाशोपन को प्राप्त करने के लिए जो व्यवहार किया जाता है वह भी सत्य है। श्रीस्थानागसूत्र के चौथे स्थान में सत्य की व्याख्या करते हुए कहा है
चउविहे सच्चे पण्णत्ते तजहा काउज्जुयया, भासुज्जुयया भावुज्जुयया अविसवायणा जोगे। · अर्थात-काय की सरलता, भाषा की सरलता और मन, वचन, काय के योगो की सरलता का नाम सत्य है ।
जिस विचार, वाणी और कार्यप्रणाली में त्रिकाल मे भी फेरफार न हो. जिसे प्रात्मा निष्पक्ष भाव से ग्रहण करे, हृदय मे सम्पूर्ण रूप से जिसके स्थित हो जाने पर भय, ग्लानि, अहकार, मोह दम्भ, ईर्षा, द्वेष, क्रोव लोभ आदि कुत्सित भाव नष्ट हो जाएं तथा जो भूतकाल मे था, वर्तमान मे है और भविष्य मे होगा अथवा जिसके द्वारा आत्मा को सच्ची शाति प्राप्त हो, उसे सत्य कहते हैं ।
योगदर्शन के साधन-पाद के तीसरे सूत्र के भाष्य में वेदव्यास जी ने सत्य की व्याख्या करते हुए कहा है :--
सत्य यथार्थे वाड मनसो यथादृष्टं यथानुमितं यथाश्रतं तथा वाड मनश्चेति ।
परत्र स्ववोधसकान्तये वागुक्तायदि न वचिता भ्रान्ता वा प्रतिपत्तिवध्या वा भवेदिति ।
भाव यह है कि मनोयोगपूर्वक वाणी की यथार्थता होना सत्य कहलाता है । अर्थात् जैसा देखा हो, समझा हो,