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तिरेपनवां बोल
मनोगुप्ति
ठीक तरह परमात्मा को पहचान कर विशुद्ध भाव से वन्दन-नमस्कार करके उसे सदा सहायक बनाने मे अनेक विघ्न बाधाए उपस्थित होती है । इन विघ्न-बाधामो को दूर करने के लिए तथा उनसे बचने के लिए भी साधुत्व अगीकार किया जाता है । यद्यपि साधुजन विघ्न-बाधाओं को जीतने के लिए ही सांसारिक वस्तुप्रो का त्याग करके सयम स्वीकार करते हैं, फिर भी मन, वचन और काय कभी-कभी साघुता की मर्यादा से बाहर निकल जाते हैं। उन्हें मर्यादा मे रखने के लिए भगवान् ने मनोगुष्ति, वचनगुप्ति मीर कायगुप्ति का विधान किया है। मन की गुप्ति से अर्थात् मन को काबू में रखने से जीवात्मा को क्या लाभ होता है, यह जानने के लिए गौतमस्वामी, भगवान महावीर से प्रश्न करते हैं:
मूलपाठ प्रश्न-मणगुत्तयाए णं भंते ! जीवे कि जणयइ ?