________________
१४० - सम्यक्त्वपराक्रम ( ५ )
शास्त्रकारो ने तीन गुप्तियो का विधान किया है। तीन गुप्तियां और पाच समितिया तो साघुता का प्राण हैं । दूसरे शब्दो मे कहा जाये तो यह आठो प्रवचनमाता हैं |
गुप्ति का अर्थ रक्षा करना होता है । मन, वचन और काय को वश मे रखना, उनकी रक्षा करना गुप्ति है । मन, वचन और काय को वश मे रखने का अर्थ उन्हे नष्ट कर देना नही है । इसका अर्थ यह हैं कि जैसे घोडे को लगाम आदि द्वारा वश मे रखा जाता है, उसी प्रकार मन, वचन, काय को वश मे रखना गुप्ति है ।
!
जैसे सीखा हुआ घोडा अपने सवार को निर्दिष्ट स्थान पर पहुचा देने में समर्थ होता है, उसी प्रकार मन, वचन तथा काय आत्मसिद्धि प्राप्त करने मे अगर सहायक बन जाएँ तो कहना चाहिए कि उनकी गुप्ति हुई है । निर्दिष्ट स्थान पर पहुच कर सवार घोडे से उतर पडता है, उसी प्रकार आत्मसिद्धि होने के बाद इन्द्रियो की सहायता लेने का भी त्याग कर दिया जाता है । अलबत्ता जब तक आत्मा का उद्देश्य सिद्ध नही हुआ है तब तक मन, वचन, काय से विवेकपूर्वक काम लेना पडता है । मन, वचन तथा काय से विवेकपूर्वक काम लेना ही गुप्ति है । मन, वचन, काय को नष्ट कर देना गुप्ति नही है । यह तो आत्महत्या है । अतएव मन, वचन तथा काय को निवृत्ति मे प्रवृत्त करना ही गुप्ति है । किसी भी वस्तु से निवृत्त होने के लिए प्रवृत्ति करना आवश्यक है । प्रवृत्ति के विना निवृत्ति नही हो सकती और निवृत्ति के बिना प्रवृत्ति नही हो सकती । अतएव मन, वचन और काय को निवृत्त करने के लिए सर्वप्रथम उन्हें आर्त्तध्यान से हटा कर धर्म-ध्यान