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१८२-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
कर उसे भी ठग लेगे परन्तु आध्यात्मिकता के आगे ठगविद्या काम नही पाती । ठगविद्या मे परमात्मा को ठग लेने की मान्यता ही भ्रामक तथा आत्मविघातक है । अतएव परमात्मा की आराधना करने के लिए भाव, भाषा तथा काया की सरलता रखनी चाहिए।
कितनेक लोग वक्तापूर्ण काम करके भी कहते हैं कि हमारा हृदय तो सरल ही है । हम काया द्वारा चाहे जैसे खराब काम करें परन्तु हमारे भावो मे किसी प्रकार को वक्रता नहीं है। किन्तु यह कथन भी भ्रामक और मिथ्या है । शास्त्रकार तो स्पष्ट कहते हैं - जिसके भाव मे सरलता होगी उसकी भाषा मे भी सरलता होगी और काया में भी सरलता होगी। इसके विपरीत, जिसके कार्यों मे और जिसकी भाषा मे वक्रता होगी, उसके भावो मे सरलता नहीं हो सकती । जो वृक्ष ऊपर से हरा-भरा दिखाई देता है, उसको जड भी मजबूत और हरीभरी है, ऐसा कहा जाता है, परन्तु जो वृक्ष ऊपर से सूखा हुआ नजर आता है, उसको जड हरी है, यह कैसे कहा जा सकता है ? इसी प्रकार जब काया और भाषा मे वक्रता होती है, तब कैसे कहा जा सकता है कि भाव में सरलता है ? जब काया मे वक्रता होती है तो भाव मे भी वक्रता होती है, यह बात एक ऐतिहासिक उदाहरण देकर समझाता हू:
बादशाह अकबर का प्रधान हिन्दू था। यह हिन्दू प्रधान मुसलमानों को शल्य की भांति चुभता था । उनका मान्यता थी कि मुसलमान राज्य मे हिन्दू प्रधान कदापि नही होना चाहिए । भतएव वे हिन्दू प्रधान के बदले किसी मुसलमान को प्रधान बनाने का प्रयत्न करते थे। जब उनको