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२०६ - सम्यक्त्वपराक्रमे (५)
से ही अर्हन्त - प्ररूपित धर्म की आराधना हो सकती है । धर्म की आराधना करने से किसी भी समय कष्ट उत्पन्न नही होता । कदाचित् कोई कष्ट उत्पन्न भी हो तो यह नहीं कहा जा सकता कि वह धर्म की आराधना के कारण उत्पन्न हुआ है । शक्कर कदापि कडुवी नहीं हो सकती, परन्तु किमी कारण से अगर शक्कर कड़वी लगे तो यही कहा जा सकता है कि वह कडुवान किमो और वस्तु का होगा जो शक्कर मे मिल गई है । भगवान् स्पष्ट कहते हैं कि जिनमे भावसत्य होता है उनके भावो मे विशुद्धता आती है और जिनमे भावो की विशुद्धता होती है वही धर्म की भलीभांति आराधना कर सकते है । इमी प्रकार जो व्यक्ति धर्म की भली भाति आराधना करता है, वही परलोक की भी आराघना कर सकता है ।
अरिहत भगवान् ने जो कुछ कहा है वह पूर्ण रूप से तभी समझ मे आता है जब हृदय के भाव शुद्ध बनते हैं । मैंने जो भी कोई ग्रन्थ या शास्त्र देखे या समझे है, उन सब मे प्रधान रूप से चित्त को शुद्ध करने की ही बात आई है। समस्त शास्त्रकारो ने तथा नीतिकारो ने चित्तशुद्धि को प्रधानता दी है ऐसा मैंने समझा है । भगवान् महावीर ने तेरह बोलो का अभिग्रह किया था । भगवान् का अभिग्रह क्या है, यह बात साधारण लोग समझ नहीं सकते थे । किन्तु भगवान् का चित्त शुद्ध था, अतएव वे चन्दनबाला की आँख मे आँसू न देखने से और इस प्रकार अपने अभिग्रह की पूर्ति मे एक बोल की कमी होने के कारण चन्दनबाला के द्वार पर जाकर वापिस लौट गए थे । सीताजी का चित्त शुद्ध था । इसी कारण उन्होने सहर्ष कष्ट सहन