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२०४-सम्यक्त्वपराक्रम (५) और सम्यग्दर्शन एक ही साथ उत्पन्न होते हैं सिर्फ बोलने के क्रम मे पहले सम्यग्ज्ञान और फिर सम्यग्दर्शन बोला जाता है । इस प्रकार सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन तथा सम्यकचारिक प्राप्त होने से ही मोक्ष मिलता है।
कहा जा सकता है कि सम्यक्चारित्र तो संयम धारण करने से ही प्राप्त हो सकता है। परन्तु सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र को भिन्न-भिन्न कहा है । ऐसी स्थिति में जिन्होने सयम धारण नही किया, उन्हे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन प्राप्त होने पर भी मोक्ष कैसे प्राप्त हो सकता है ? इस कथन का उत्तर यह है कि जिसमे सम्यग. ज्ञान और सम्यग्दर्शन होता है, वह व्यवहार मे भले ही सयम धारण न कर सका हो अर्थात् चारित्र धारण न कर सका हो, फिर भी उसमे भाव से चारित्र का अश होता ही है । व्यवहार मे सयम न धारण करने पर भी जिनका आत्मा निज गुणो मे रमण करता है, उनमें भावचारित्र होता ही।
सयम की तरह सत्य भी दो प्रकार का होता हैव्यावहारिक और पारमार्थिक । पारमार्थिक सत्य ही भावसत्य कहलाता है । भावसत्य होने पर ही भावशुद्धि हो । सकती है । पारमार्थिक सत्य किसे कहते हैं, यह बात समझाने के लिये श्री आचारागसूत्र में कहा है
समय ति मण्णमाणे समया वा असमया वा समया होइ ति उविहाए ।
अर्थात्-~-जिसे तू सत्य मानता है अर्थात् जिस विषय में तेरे हृदय मे किसी प्रकार का सदेह नही है वह तेरे लिये सत्य रूप ही है।