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पचासवां बोल-२०३
नही होता और जिसे सम्यग्दर्शन ही प्राप्त नही है उसे सम्यकचारित्र प्राप्त नही हो सकता । इस सम्बन्ध मे श्री उत्तराध्ययनसूत्र के २८ वें अध्ययन में कहा है : -
नादसणिस्स नाण नाणेण विना न होंति चरणगुणा । अगुणि स नत्थि मोक्खो नत्थि अमोक्खस्स निव्वाणं ॥
अर्थात् - जिसे सम्यग्दर्शन प्राप्त नही हुआ उसे सम्यगज्ञान भी प्राप्त नहीं होता और सम्यग्ज्ञान के विना सम्यकचारित्र गुण प्राप्त नही हो सकता । सम्यक् चारित्र के अभाव मे मुक्ति नहीं मिलती और मुक्ति मिले बिना निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती।
इस कथन से यहां प्रश्न उपस्थित होता है कि पहले सम्यग्ज्ञान उत्पन्न होता है या सम्यग्दर्शन ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि निश्चय मे तो सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति एक ही साथ होती है परन्तु व्यवहार में बोलने के क्रम से पहले सम्यग्ज्ञान बोला जाता है । वास्तव मे तो दोनो एक ही साथ उत्पन्न होते हैं । उदाहरणार्थ- सूर्योदय होने पर प्रकाश पहले होता है या प्रताप ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यद्यपि प्रकाश और प्रताप दोनो एक साथ ही सूर्य मे से निकलते हैं क्योकि जिन किरणो से प्रकाश निकलता है उन्ही किरणो से प्रताप निकलता है । फिर भी बोलने मे पहले प्रकाश और फिर प्रताप बोला जाता है । इसी प्रकार जब ज्ञानावरणीय का क्षयोपशम होता है और मिथ्यात्वमोहनीय का उदय होता है तब मिथ्याज्ञान उत्पन्न होता है । परन्तु जब ज्ञानावरणीय के क्षयोपशम के साथ मिथ्यात्वमोहनीय का भी क्षयोपशम होता है तब सम्यग्ज्ञान