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पचासवां बोल-२१७
के कारण ही वह नित्य भी है । प्रात्मा यद्यपि नित्य है, तथापि जीवात्मा में अज्ञान आदि दोष मौजूद होने के कारण वह कर्मों से बद्ध होता है । यह बधन ही संसारपरिभ्रमण का कारण हैं, ऐमा महापुरुषो का कथन है ।
जितने अमूर्त द्रव्य है, सभी नित्य हैं। आकाश अमूर्त है तो वह नित्य है । परन्तु आकाश द्रव्य मे जीव की तरह पर-सयोग से परिणमन नहीं होता, जब कि' जीवात्मा (कर्मबद्ध आत्मा ) कर्म के वश होकर छोटे-बड़े आकारो मे परिणत होता है और उच्च-नीच गतियो मे गमन करता है ।
आत्मा अमूर्त होने से इन्द्रियग्राह्य नही है । इद्रियां एक-एक विषय को ही ग्रहण करती हैं । जो विषय जिस इन्द्रिय द्वारा ग्रहण किया जाता है, उस विषय को दूसरी इन्द्रिय ग्रहण नही कर सकती । सुनने का काम कान और देखने का काम आँख ही कर सकती है अगर कोई व्यक्ति सुनने के लिए कान बन्द करके आख खुली रखे अथवा देखने के समय आंख बन्द करके कान खुला रखे तो वह सुन या देख नही सकता । कारण यही है कि इन्द्रिया अपने-अपने विषय को ही ग्रहण कर सकती हैं । परन्तु आत्मा सब के विषय को ग्रहण कर लेता है और प्रात्मा होने के कारण ही इन्द्रिया अपने-अपने विषय को ग्रहण करने मे शक्तिमान् होती हैं । आत्मा जब शरीर मे से निकल जाता है तो इन्द्रियां शरीर मे रहती हुई भी अपने विषय को ग्रहण करने मे असमर्थ हो जाती हैं । मृत व्यक्ति की इन्द्रिया मृतक शरीर में मौजूद तो रहती है, लेकिन आत्मा के अभाव मे वह काम नहीं कर सकती । इससे यह भलीभाति सिद्ध हो जाता है कि आत्मा की मौजूदगी मे ही इन्द्रियां अपना