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पचासवां बोल - २१५
भावसत्य का फल बतलाते हुए भगवान् ने बतलाया है कि भावसत्य से हृदय की शुद्धि होती है । भावविशुद्धि से करण और योग की विशुद्धि होती है । इस प्रकार विशुद्ध अन्त करण वाला जीवात्मा अर्हत्प्ररूपित धर्म की आराधना कर सकता है और जो अर्हत्प्ररूपिन धर्म की आराधना करता है वही परलोक मे धर्म की आराधना कर सकता है ।
भगवान् ने जो उत्तर दिया है, उस पर यह प्रश्न किया जा सकता है कि अर्हत्-धर्म की आराधना और परलोक की आराधना क्या भिन्न-भिन्न है ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यहा दोनो को भिन्न कहकर लक्षण द्वारा दोनो का सम्बन्ध बतलाया गया है। इस लक्षण द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि अर्हत् धर्म की आराधना आस्तिक ही कर सकता है । जो आस्तिक नही है - नास्तिक है, वह अर्हत्-धर्म की आराधना नही कर सकता ।
भगवान् महावीर के युग मे भी अनेक नास्तिक थे और आजकल तो इस मत की बहुत प्रबलता हो गई है । आधुनिक भौतिक विज्ञानवेत्ता भी कहते है कि पांच भूतो के सम्मिलन से जीवन पैदा होता है और जब पांचो भूत बिखर जाते हैं तो मृत्यु हो जाती है । कोई अत्मा न परलोक मे जाता है, न परलोक से आता है। आत्मा जब तक रहता है तभी तक जीवन है और उसी का हट जाना मृत्यु है । भृगु पुरोहित के पुत्र देवभद्र तथा यशोभद्र जब सयम धारण कर रहे थे, तब उसके पिता भृगु ने कहा था
जहा य अग्णी अरणी असतो,
खोरे घयं तेल्लमहातिलेतु ।