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२१६-सम्यक्त्वपराक्रम (५)
एमेव ताया ! सरीरसि सत्ता,
समुच्छई नासइ नावचिट्ठ ॥ अर्थात--जैसे अरणि में अग्नि, दूध में घी और तिल मे तेल प्रत्यक्ष से न दिखाई देने पर भी संयोगवल से उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार, हे बालको | पचभूतात्मक शरीर में से जीवात्मा उत्पन्न होता है और शरीर के नाश के साथ ही वह नष्ट हो जाता है । शरीर का नाश होने के पश्चात् चेतन नही रहता । (तो फिर धर्म किस लिए ? और संयम लेने की क्या आवश्यकता है ?)
चार्वाक मत का कथन है कि पाच महाभूतो से हो कोई शक्ति उत्पन्न होती है और शरीर के साथ ही वह क्षीण हो जाती है । परन्तु वास्तव मे चेतना शक्ति का क्षय कभी हो ही नही सकता । अरणि मे अग्नि, दूध मे वी, और तिल मे तेल भले ही प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर न हो तथापि वह अव्यक्त रूप से रहता अवश्य है इसी प्रकार शरीर धारण करते समय कर्म से लिप्त चेतन तत्त्व विद्यमान होता है
और शरीर क्षोण होने पर दूसरे शरीर मे चला जाता है। पिता के कथन के उत्तर मे पुत्रो ने कहा था:-- नौ इंदियगेझ प्रमुत्तभावा,
प्रमुत्तभावा वि य होइ निच्चो । अज्झत्थहेउ निययस्स बंधो, ससारहे च वयति बधं ॥
- उत्तरा०, १४, १६ अर्थात्-- पिताजी । आत्मा अमूर्त होने के कारण इन्द्रियो द्वारा ग्रहण नही किया जा सकता और अमूर्त होने