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२०८-सम्यक्त्वपराक्रम (५) यह सब तुम किसके विपय में कहते हो ? इस प्रश्न के उत्तर मे गौतम स्वामी ने कहा
एगप्पा अजिए सत्तू कसाया इदियाणि य । ते जिणित्ता जहानायं विहरामि अह मुणी ॥
अर्थात्- हे मुनि ! एक (मन की दुष्प्रवृत्ति के प्राधीन बना हुआ) जीवात्मा अगर जीता न जाये तो वह शत्रु है। (आत्मा को न जीतने से कषायो की उत्पत्ति होती है । ) इस शत्रु के प्रताप से चार कषाय भी शत्रु हैं और पाच इन्द्रियां भी शत्रु हैं । इस प्रकार सम्पूर्ण शत्रुपरम्परा को जैन शासन के न्याय के अनुसार जीत कर मैं शान्तिपूर्वक विहार करता रहता हूँ ।
क्रोध, मान, माया और लोभ यह चार कषाय हैं । इनकी न्यूनाधिकता-तरतमता के कारण कषाय के सोलह भेद होते हैं । दुष्ट मन भी शत्रु है । पांच इन्द्रियो का असत् वेग होने से यह भी शत्रुओ जैसा काम करती हैं । मगर इन सव का मूल एक मात्र दुरात्मा है । अतएव दुरात्मा को जीत लिया जाये तो सरलता के साथ सब को जीता जा सकता है । जैन शास्त्रो की नीति के अनुसार बाहर के युद्ध की अपेक्षा आत्मयुद्ध करना उत्तम है । क्षमा, दया, तपश्चर्या और त्याग आत्मयुद्ध के शस्त्र हैं । इन्ही शस्त्रों से कर्मशत्रु नष्ट होता है।
गौतम स्वामी ने जो कुछ कहा है वही अनाथी मुनि ने भी राजा श्रेणिक से कहा था । अनाथी मुनि ने श्रेणिक राजा से कहा था- दुख और सुख, नरक और स्वर्ग तथा शत्रु और मित्र आत्मा ही है। दूसरा नही। अगर हमारा