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१८४ - सम्यक्त्वपराक्रम ( ४ )
हिन्दू प्रधान का एक कांटा तो दूर हुआ !
दूसरे दिन बादशाह ने प्रधान से कहा- 'तुमने बहुत दिनों तक प्रधान पद भोगा है । अब थोडे दिनो के लिए शेख हुसेन को यह पद दे दो ।
हिन्दू वजीर ने कहा- 'जैसी जहापनाह की मर्जी '
बादशाह ने प्रधान पद शेख हुसेन को सौंपा और हिन्दू प्रधान को पृथक् कर दिया । बादशाह के इस कार्य से मुसलमान बहुत प्रसन्न हुए । मगर उन्हे पता नहीं था कि शेख हुसेन इस कार्य के लिए योग्य है या नहीं ? बादशाह को भलीभांति मालूम था कि शेख हुसेन इस पद को सुशो भित नहीं कर सकता । उन्होने सोचा शेख हुसेन को मैंने प्रधान पद सौप तो दिया है परन्तु वह किसी दिन राज्य को भयकर हानि पहुचाएगा । अतएव ऐसा कोई उपाय करना ठीक होगा कि वह स्वयं ही प्रधान पद छोडकर भाग जाये । इस प्रकार विचार कर बादशाह ने शेख से कहा रोम के बादशाह से कुछ काम है । तुम वहा जाओ और काम को इस प्रकार कर आओ जिससे मेरी प्रतिष्ठा बढे । शेख हुसेन ने बादशाह की आज्ञा शिरोधार्य की ओर रोम जाने की तैयारी शुरू कर दी ।
शेख हुसेन रोम गया । उसने वहाँ ऐसा व्यवहार किया कि उसका अपमान हुआ । अपमानित होकर वह वापिस लौटा | वह अपने मन मे कहने लगा- मैं इम भझट में कहा से पड़ गया । पहले में मौज में था । प्रधान बनकर मुसीवत गले लगा ली। इस प्रकार सोचता- विचारता वह वादशाह के सामने श्राया | वादशाह ने पूछा- रोम सकुगल जा आए ? शेख हुमेन ने उत्तर मे कहा आपने मुझे खूब झट