________________
१६८ - सम्यक्त्वपराक्रम (५)
विपय मे पूज्य श्री उदयसागर जी महाराज एक उदाहरण दिया करते थे। वह इस प्रकार है- जोधपुर मे एक छोटा पहाड़ है । उस पहाड पर किला बना है । उस किले पर चढ कर मनुष्य जब नीचे के मनुष्यो को देखता है तब उसे वे छोटे-छोटे नजर आते है । इसी प्रकार नीचे के मनुष्यो को भी ऊपर वाला मनुष्य छोटा दिखाई देता है । इम तरह जो दूसरो का छोटा या हल्का समझता है, वह दूसरों से भी छोटा या हल्का ही समझा जाता है । जो व्यक्ति दूसरो को समान बनाना चाहता है और यह चाहता है कि दूसरे भी उसे समान मानें तो उस दूसरो के साथ समान भूमिका पर खड़ा होना पडेगा । कहने का आशय यह है कि जो व्यक्ति ग्रहंकार पर सवार है और अहंकार के कारण दूसरो को हल्का मानता है उसको भी दूसरे हल्का ही ममझते हैं । वास्तव में महान् वही है जा नम्रता से युक्त है ।
श्रीकृष्ण ने एक वृद्ध पुरुष की ईंट उठाई थी, इससे वे क्या छोटे हो गए थे ? क्या ईंटें उठाते समय उन्होने यह अभिमान किया था कि कहा मैं द्वारकाधीश और कहा यह वूढा भिखारी ! उन्होने ऐसा अभिमान नही किया तो वे महान् समझ गए या छोटे ? वर्मरुचि मुनि ने कीडियो की दया के लिए अपना शरीर भी त्याग दिया । उन्होने विचार किया यह विषमय शाक खाकर कीडिया मरें, इसकी अपेक्षा में स्वय इसे खाकर प्राण अर्पण कर दू तो क्या हर्ज है ? उन्होने विषमय शाक का आहार करते समय छोटेवडे का यह भेद नही किया कि कहां में और कहां यह क्षुद्र कीडिया | उन्होने उस समय छोटे-बड़े का भेद करके अभिमान किया होता तो क्या वे जगत् के समक्ष ज्वलत