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१७४-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
लोलुप लोगों की बदौलत ही यह ससार दुखी बना हुआ है और जिन्होने धन को धूल के समान मानकर उसका त्याग कर दिया है, उन निर्लोभ पुरुषो की ही बदौलत ससार सुखी हो सका है अथवा हो सकता है।
जो अर्थलोभी नहीं है, जो धन को धूल समझते हैं, उन्हे, कही भी किसी भी प्रकार का भय नही रहता । प्राज धन लोभी लोगो को हो चोर आदि का सब से ज्यादा भय लगता है। धन के त्यागी, धन को धूल समझने वाले मुनि को जगल में भी किसी का भय नहीं लगता । दरअसल धन मे आनद नही है, धन का त्याग करने मे प्रानन्द है । यह बात प्रत्यक्ष प्रमाण से भी सिद्ध है। धन का त्यागी स्वय सुखी रहता है और दूसरो को भी सुखी बनाता है ।
। अगर तुम सासारिक पदार्थों की वास्तविकता पर विचार करोगे तो जान पडेगा कि लोभ का कही अन्त ही नही है ! ज्यो-ज्यो धन बढ़ता जाता है त्यो त्यो लोभ भो बढता चला जाता है । और जैसे-जैसे धन-लोभ बढता जाता है वैसे-वैसे पाप का पोषण भी हो जाता है। अतएव ससार की प्रत्येक वस्तु का स्वेच्छा से ही त्याग करना उचित है। लोभ को जीतकर निर्लोभ बनने के लिए, शास्त्र मे अनेक उपाय बतलाये गए हैं। श्री उत्तराध्ययन सूत्र में कपिल मुनि का दृष्टान्त देकर बतलाया है कि वस्तु की प्राप्ति होने से किस प्रकार लोभ की वृद्धि होती जाती है ! और परिणामस्वरूप जीवन में कितनी अशान्ति उत्पन्न हो जाती है । लोभ, दुख और अशान्ति का कारण है। निर्लोभता से सुख
और शान्ति प्राप्त होती है । अतएव लोभ का त्याग करके निर्लोभ बनने मे ही कल्याण है।