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पड़तालीसवाँ बोल-१७७
बोलो में से सैंतालीस बोलो का विस्तृत विवेचन किया जा चुका है । सैतालीसवें बोल में मुत्ति अर्थात् निर्लोभता किस प्रकार प्राप्त की जा सकती है और उससे जीवात्मा को क्या लाभ होता है, इस विषय पर विचार किया गया था ।
आर्जव क्या है ? आर्जव गुण धारण करने से जीव को क्या लाभ होता है ? इस सम्बन्ध में गौत्तम स्वामी भगवान् महावीर से प्रश्न करते हैं:
मूलपाठ प्रश्न--प्रज्जवयाए ण भते ! जीवे कि जणयइ ?
उत्तर--प्रज्जवयाए काउन्जुययं भावज्जुययं भासुज्जुययं अविसवायणं जणयइ, अविसवायणसंपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स भाराहए भवइ ॥४८॥
शब्दार्थ प्रश्न भगवन् । प्राजव-ऋजुना-निष्कपटता से जीव को क्या लाभ होता है ?
उत्तर-ऋजुता से जीवात्मा काय की सरलता, भाव की सरलता, भाषा की सरलता तथा तीनो योगो की सरलता प्राप्त करता है । प्रात्मा जब मन, वचन, काय से सरल बनता है तब धर्म का आराधक बनता है ।
व्याख्यान इस बोल पर विशेष विचार करने से पहले यह विचार कर लेना आवश्यक है कि जीवन में आर्जव-सरलता कब प्रकट होती है ? जीवन मे अर्जव गुण प्रकट करने के लिए