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१७८ - सम्यक्त्वपराक्रम (४)
- भगवान् ने पहले ही कह दिया है कि जो व्यक्ति अक्रोधी होता है, वही क्षमागुण को धारण कर सकता है, जो क्षमाशील होता है वही निर्लोभ हो सकता है और जो निर्लोभ होता है वही निष्कपट बन सकता है । इस प्रकार जहा कपटभाव नही होता वही आर्जव गुण प्रकट होता है । जिसमे लोभ श्रादि होते हैं वह सरलता नही रख सकता और जहा लोभ है वहा कपट होता ही है ।
लोभ और कपट मे अविनाभाव सवध है। जहां तीव्र लोभ है वहाँ माया भी है और जहा माया है वहा लोभ अवश्य होता है | जो लोभ को जीत लेता है वह कपट को भी जीत लेता है और जो कपट को जीत लेता है वह लोभ को भी जीत लेता है । इस प्रकार निर्लोभता और निष्कपटता के बीच पारस्परिक सवध है और इसी कारण गौतम स्वामी ने निर्लोभता के प्रश्नोत्तर के बाद निष्कपटता के विषय मे भगवान् से प्रश्न किया है ।
दुनियादारी मे आम तौर पर यह कहा जाता है कि जो सरल होता है वह व्यवहार मे कच्चा होता है, अतएव मनुष्य में थोडी बहुत वक्रता अवश्य होनी चाहिए। इस प्रकार ससार मे वक्रता रखने की आवश्यकता अनुभव की जाती है | परन्तु शास्त्रकार इससे विरुद्ध यह कहते हैं कि लोभ या वक्रता रखने से श्रात्मा का तनिक भी लाभ नही होता है । निर्लोभता और सरलता से ही आत्मा का वास्तविक लाभ होता है । भगवान् ने कहा है - हे गौतम! जिस व्यक्ति के हृदय में सरलता होती है, कपट नही होता, उस व्यक्ति की काया मे सरलता अती है, भावो मे सरलता आती है और भाषा मे भी सरलता आ जाती है । इसके
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