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संतालीसवां बोल-१७३
सकता । जहाँ ममत्व है वहा दुःख होता ही है । अतएव सांसारिक पदार्थों से जितना दूर रहा जाये, उतना ही अच्छा है। सासारिक पदार्थों के प्रति निस्पृह रहने से सासारिक पदार्थ अधिकाधिक समीप आते हैं और उन पर ममत्व रखने से वे दूर भागते हैं । सूर्य की तरफ पीठ करके छाया को पकड़ने के लिए दौडने से छाया आगे-आगे भागती जाती है। इसी प्रकार ममता के कारण सासारिक पदार्थ दूर से दूर तक होते जाते हैं। अगर सूर्य की ओर मुख और छाया की तरफ पीठ की 'जाये तो छाया पीछे-पीछे चली आती है। इसी प्रकार पदार्थों के प्रति निस्पृहता धारण की जाये और उदारतापूर्वक उनका त्याग करने की भावना रखी जाये तो सासारिक पदार्थ तुम्हारे पीछे-पीछे दौड़ेंगे । अतएव सांसारिक पदार्थों के प्रति ममताभाव नहीं रखना चाहिए।
ससार मे जनसमाज का कल्याण वही व्यक्ति कर सकता है, जिसने ममता का त्याग कर दिया हो । अर्थलोभी व्यक्ति प्रायः समार का अहित करने मे प्रवृत्त रहता है । कोई कह सकता है कि आप धन का त्याग करने के लिए कहते हैं, परन्तु आज तो यह माना जाता है कि:
भज कल्दारं, भज कल्दारं, कल्दारं भज मूढमते ! '. अर्थात् हे मूढ ! तू धन की पूजा कर । ऐसी स्थिति मे क्या करना चाहिए ?
इस कथन का उत्तर यह है कि अर्थलोभी ही ऐसा । कहते हैं । ऐसे लोगो से पूछना चाहिए कि धनें में सुख ही है या दुख भी है ? इस प्रश्न के उत्तर मे अर्थलोभी भी स्वीकार किये बिना नहीं रह सकते कि धन मे दुख भी है। वास्तव मे धन को परमात्मा के समान मानने वाले अर्थ