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'सैतालीसवां बोल-१६६
है और इस कारण निर्लोभ व्यक्ति अर्थलोलुप लोगो के लिए अप्रार्थनीय बनता है।
__इस प्रश्न का उत्तर सुनकर कोई कह सकता है कि निर्लोभता का यह तो उलटा फल निकला ! ससार व्यवहार मे तो यह देखा जाता है कि धन होने से ही धर्म होता है और धनवान् को ही धर्मात्मा माना ज ता है । परन्तु भगवान् कहते है कि 'निर्लोभता से निर्धनता पाती है। इस प्रकार के कथन के सबध में शास्त्रकार कहते हैं कि अगर तुम भगवान् के कथन पर गहरा विचार करोगे तो भगवद्-वाणी का रहस्य तुम्हारी समझ मे आयेगा और तुम्हें अपनी भूल मालूम हुए बिना नही रहेगी । यह तो तुम भलीभाति जानते हो कि पदार्थों के प्रति चाहे जितनी ममता क्यो न रखो, आखिर वे पदार्थ नष्ट हो जाएगे और तब ममता त्यागनी ही पडेगी । ऐसी स्थिति में जो पदार्थ नष्ट हो जाने वाले हैं, उन्हे अपनी ओर से त्याग देना हो निर्लोभता है। अब तुम स्वयं ही विचार करो कि जो वस्तु अन्त मे छूटने वाली ही है और नष्ट भ्रष्ट होने वाली है उम नश्वर वस्तु के प्रति ममत्व रखने से लाभ है या उपका स्वेच्छा से त्याग करने मे लाभ है ? तुम स्वय कहोगे कि नश्वर वस्तु के प्रति ममत्व न रखने तथा निर्लोभता धारण करने मे ही लाभ है। ' कोई कह सकता है कि निर्धन हो जाना या दरिद्रता प्राप्त होना निर्लोभता का सुन्दर परिणाम नहीं कहा जा सकता । दरिद्रता के कारण तो पूरे अन्न-वस्त्र भी प्राप्त नही होते । ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जा सकता है कि निर्लोभता अच्छी वस्तु है ? इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान्