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१६८-सम्यक्त्वपराक्रम (४)
महान् उपकार किया है । इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् नै जो कुछ कहा है, उस पर हमें शान्त चित्त से विचार करना चाहिए । भगवान का कथन है कि क्षमा के विना निर्लोभता उत्पन्न नही होती और निर्लोभता के बिना क्षमा नही आ सकती । यह दोनो गुण एक दूसरे के सहारे टिके है । अकेली क्षमा टिक नही सकती । क्षमागुण को स्थिर रखने के लिए अन्य सद्गुणो को भी आवश्यकता होती है । जैसे मूल होने पर शाखा-प्रशाखाए होती हैं, उसी प्रकार क्षमा रूपी मूल के होने पर शाखा-प्रशाखा के रूप में अन्य गुण होते है । क्षमा गुण अगर मूल है तो निर्लोभता आदि गुणो को शाखा-प्रशाखा के रूप मे समझना चाहिए ।
जिस व्यक्ति मे लोभ होता है अथवा जिस व्यक्ति को किसी वस्तु के प्रति ममत्व होता है उसकी प्रिय वस्तु को अगर कोई हानि करता है तो हानि करने वाले पर उसे क्रोध आना स्वाभाविक है। किन्तु जो व्यक्ति निर्लोभ होता है, जो यह मानता है कि सब वस्तुए मेरे आत्मा के सयोग से ही हैं और एक न एक दिन वह सब नष्ट होने वाली ही हैं, मेरा शाश्वत सबंध किसी भी सासारिक वस्तु के साथ नही है, ऐसे व्यक्ति को किसी पर क्रोध आने का कोई कारण ही नही । जिस व्यक्ति के लिए किसी पर क्रोध का कारण ही नही होता, वही व्यक्ति क्षमा रख सकता है। इस प्रकार निर्लोभता के कारण ही क्षमाभाव टिक सकता है । अतएव लोभ को जीत कर क्षमाशील बनने का प्रयत्न करो ।
निर्लोभता से जीव को क्या लाभ होता है, इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् फरमाते है- जिसमें लोभ नही होताजो निर्लोभ होता है वह अकिचन अर्थात् निर्धन बन जाता