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१५६ - सम्यक्त्यपराक्रम ( ४ )
का नाश करता है, माया मित्रो की मित्रता का नाश करती है और लोभ तो सर्वविनाशक है । अतएव -
'उवसमेण हणे कोह, माण मद्दवया जिणे । मायामज्जवभावेण, लोभं संतोसश्रो जिणे ।' - दा० ८, ३६
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अर्थात् - उपशम-क्षमा द्वारा क्रोध को दूर करना चाहिए, नम्रता द्वारा अभिमान को हटाना चाहिए, सरलता द्वारा माया को जीतना चाहिए और सतोष द्वारा लोभ को जीतना चाहिए ।
त्रोध, मान, माया तथा लोभ-यह चार कषाय भवचक्र मे भ्रमण कराते हैं । अगर हम भवचक्र मे भ्रमण नही करना चाहते और आत्मा को शान्ति देना चाहते हैं तो क्षमा प्रादि साधनो द्वारा क्रोध आदि कषायो को दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए | क्षमा द्वारा क्रोध किस प्रकार जीता जा सकता है, यह बात युधिष्ठिर के जीवन से समझी जा सकती है । युधिष्ठिर की भाति 'कोप मा कुरु' इस धर्मशिक्षा को मगर तुम अपने हृदय मे उतार कर सक्रिय रूप दोगे तो तुम भी धर्मात्मा बनकर आत्म-कल्याण साध सकोगे ।
क्रोध आदि को जीतने का मार्ग तो बतलाया परन्तु क्रोध आदि के उत्पन्न होने पर किस प्रकार सहनशीलता पोर क्षमा धारण करना चाहिए, यह बात खधक मुनि के उदाहरण द्वारा समझाता हूं । सहनशीलता सीखने के लिए खमक 'मुनि की सहनशीलता अपने लिए आदर्श है । इस आदर्श का अनुसरण करने मे ही प्रपना कल्याण है ।
खघंक मुनि गृहस्थावस्था में राजकुमार थे । वे राज