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छयालीसवां बोल - १६५
मुनि का मालूम होता है । रानी, राजा के पास गई और कहने लगी- - महाराज ! ग्रापके राज्य में किसी मुनि का घात हुआ है । यह वस्त्र उन्ही मुनि का मालूम होता है । रानी ने यह भी कहा- उन मुनि ने ऐसा क्या अपराध किया था कि आपने उन्हे प्राणदण्ड दिया ? रानी के प्रश्न के उत्तर मे राजा ने अथ से इति तक सारा वृत्तान्त कह सुनाया। राजा का कथन सुनकर रानो के दुख का पारन रहा ।
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रानी ने कहा -मुनि को प्राणदण्ड देने से पहले जांच तो कर लेते कि मैंने मुनि की ओर किसलिए देखा | आपने यह कुकृत्य करके घोर अनर्थ किया है । मुनि को देखकर मेरे मन मे विचार आया कि मेरा भाई भी इन मुनि की तरह घर-घर भिक्षा के लिए भटकता होगा ! आपने मेरी दृष्टि मे विकार देखा, मगर वास्तव मे मेरी दृष्टि मे अथवा मुनि की दृष्टि में किसी प्रकार का विकार नही था ।
राजा ने खोज कराई तो मालूम हुआ कि वह मुनि रानी के संसारावस्था के भाई ही थे । यह जानकर राजा को भी बहुत पश्चात्ताप हुआ ।
रानी ने कहा- अब पश्चात्ताप करने से मुनि फिर जीवित होने के नही । अतएव पश्चात्ताप करना छोडो और इन मुनि के मार्ग का अनुसरण करो। इसी मे अपना कल्याण है । आखिर राजा रानी दोनो ने सयममार्ग ग्रहण कर के ग्रात्मकल्याण किया ।
कहने का आशय यह है कि मुनि के मन में जो क्षमा होती है, उसका प्रभाव दूसरे पर भी पड़ता है । राजा कितना कठोरहृदय था कि मुनि का किसी प्रकार का अप