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छयालीसा बोल-१५९
काज करने में निपुण थे। उनके राज्य सचालन से प्रजा सतुष्ट और सुखी थी। एक बार उन्हे किसी विद्वान् मुनि का उपदेश सुनने का अवसर मिल गया । मुनिवर के उपदेश का प्रभाव उनके जीवन पर पड़ा। उन्होने विचार कियामैं अपनी धीरता और वीरता का उपयोग केवल दूसरों के ही लिए करता है । यह योग्य नही है । मुझे अपने इन गुणो का उपयोग अपनी आत्मा के लिए भी करना चाहिए । इस प्रकार विचार कर उन्होने अपने माता-पिता से अनुरोध किया 'मैं आत्मा का श्रेयस् करना चाहता हूं; अतएव ऐसा करने की प्राज्ञा दीजिए।' माता-पिता ने कहा - 'पुत्र ! तू आत्मा का श्रेयस् करना चाहता है, यह अच्छी बात है । प्रसन्नतापूर्वक ऐसा कर ।' खधकजी बोले-'ससार मे रहकर आत्मश्रेयस् साधना मुझे कठिन प्रतीत होती है, अतएव मैं संसार का त्याग करके आत्मकल्याण करने की इच्छा करता हू ।' पुत्र का यह कथन सुनकर उनके माता-पिता दुखित होकर कहने लगे---'बेटा ! ससार का त्याग थोडे ही हो सकता है ।' खघकजी बोले-- ऐसा है तो आप यह कहिए कि आत्मकल्याण न साध अथवा यह कहिए कि ससार का त्याग करके प्रात्मकल्याण नही किया जा सकता।' खधकजी का यह कथन सुनकर माता-पिता उनका निश्चय और सदाशय समझ गए और उन्होने ससार-त्याग करके आत्मकल्याण करने की आज्ञा दे दी । साथ ही यह कहा--'बेटा! तू क्षत्रियपुत्र है । अतएव सिह की भाति समार का त्याग करना और सिंह की भाति ही सयम का पालन करना ।' खधकजी ने माता-पिता की शिक्षा शिरोधार्य करते हुए कहा-आपका कथन समुचित है । मैं आपके आदेशानुसार